सारांश : सुप्रीम कोर्ट की 7 सदस्यीय बेंच ने 4-3 के फैसले से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बरकरार रखा है। यह निर्णय कई कानूनी और संवैधानिक सवालों को जन्म देता है, जिन पर अब एक नई बेंच द्वारा आगे की सुनवाई की जाएगी।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने का सवाल दशकों से कानूनी बहस का विषय बना हुआ है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें सात जजों की बेंच ने 4-3 के अंतर से AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को बरकरार रखा। यह फैसला न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में सुनाया गया, जो उनके कार्यकाल का आखिरी निर्णय भी था। उनके साथ न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने अल्पसंख्यक दर्जे का समर्थन किया, जबकि तीन जज इस मत के खिलाफ रहे।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपनी व्याख्या में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को शिक्षा के क्षेत्र में गैर-भेदभाव का अधिकार मिला है, लेकिन यह जानना महत्वपूर्ण है कि यह अधिकार किस हद तक और किन परिस्थितियों में लागू होता है। उनके अनुसार, इस मुद्दे का मर्म यह है कि किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा कैसे दिया जाए—क्या केवल उसकी स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा की गई है, या उसका प्रशासन भी उसी समुदाय के हाथों में होना चाहिए।
अजीज बाशा मामले के फैसले को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 30 का उद्देश्य उन संस्थानों को संरक्षण देना है जो अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा स्थापित किए गए हैं, भले ही वे संविधान लागू होने से पहले ही स्थापित हो गए हों। इससे यह स्पष्ट होता है कि केवल संविधान के लागू होने के बाद के संस्थानों पर ही नहीं, बल्कि संविधान लागू होने से पहले के संस्थानों पर भी अनुच्छेद 30 के नियम लागू होते हैं।
फैसले के बाद, कोर्ट ने आगे इस मामले पर सुनवाई के लिए एक नई बेंच गठित करने का संकेत दिया है। इस बेंच का गठन इसलिए किया जाएगा ताकि 2006 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय, जिसने AMU को अल्पसंख्यक संस्थान मानने से इनकार किया था, की वैधता की दोबारा जाँच की जा सके। कोर्ट ने यह भी साफ किया कि AMU का दर्जा कानूनी रूप से बरकरार है, लेकिन इससे संबंधित विवाद अभी भी सुलझा नहीं है।
इस फैसले की संवैधानिकता पर बहस ने AMU की स्थापना और इसके अल्पसंख्यक स्वरूप पर नई दिशा दी है। वर्ष 1981 में AMU को अल्पसंख्यक दर्जे की बहाली दी गई थी, और 2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने भी इस दर्जे को मान्यता दी थी, जिससे विश्वविद्यालय को अपनी प्रवेश नीति में परिवर्तन करने का अधिकार मिला। इसी के तहत AMU ने एमडी और एमएस कोर्सेस में आरक्षण नीति को बदलने का भी निर्णय लिया।
इस विवाद की जड़ में संविधान की व्याख्या है, जो अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों और विशेषाधिकारों को परिभाषित करती है। अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को शिक्षा के क्षेत्र में गैर-भेदभाव का अधिकार है, लेकिन चीफ जस्टिस ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिकार असीमित नहीं हो सकता। इसे केवल उन संस्थानों तक सीमित करना होगा जो अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा स्थापित किए गए हैं और जहाँ उनका प्रशासन भी अल्पसंख्यकों के हाथों में है। इस प्रकार, केवल अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित होने के आधार पर किसी संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा देना संभव नहीं है, बल्कि प्रशासनिक अधिकार भी उसी समुदाय के पास होने चाहिए।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के मामले में, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इस बात पर केंद्रित है कि अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा स्थापित संस्थानों को किस हद तक विशेषाधिकार दिए जा सकते हैं। इस विवाद को आगे एक नई बेंच के समक्ष लाया जाएगा जो इससे संबंधित मामलों पर विस्तृत विचार करेगी। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का मत था कि संविधान के पहले और बाद के संस्थानों के बीच विभाजन से अनुच्छेद 30 की भावना कमजोर हो जाएगी, इसलिए इस विभाजन को त्यागना होगा।
अल्पसंख्यक संस्थान होने के कारण AMU को विभिन्न अधिकार मिले हुए हैं, जिनमें इसके प्रवेश मानदंडों में परिवर्तन का अधिकार भी शामिल है। इन अधिकारों को ध्यान में रखते हुए, विश्वविद्यालय ने विभिन्न स्तरों पर अपने शैक्षणिक ढांचे में बदलाव किए हैं। परंतु, उच्चतम न्यायालय का ताजा निर्णय इस विवाद को हल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।
एक टिप्पणी भेजें